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आदित्प॒श्चा बु॑बुधा॒ना व्य॑ख्य॒न्नादिद्रत्नं॑ धारयन्त॒ द्युभ॑क्तम्। विश्वे॒ विश्वा॑सु॒ दुर्या॑सु दे॒वा मित्र॑ धि॒ये व॑रुण स॒त्यम॑स्तु ॥१८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ād it paścā bubudhānā vy akhyann ād id ratnaṁ dhārayanta dyubhaktam | viśve viśvāsu duryāsu devā mitra dhiye varuṇa satyam astu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आत्। इत्। प॒श्चा। बु॒बु॒धा॒नाः। वि। अ॒ख्य॒न्। आत्। इत्। रत्न॑म्। धा॒रय॒न्त॒। द्युऽभ॑क्तम्। विश्वे॑। विश्वा॑सु। दुर्या॑सु। दे॒वाः। मित्र॑। धि॒ये। व॒रु॒ण॒। स॒त्यम्। अ॒स्तु॒॥१८॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:1» मन्त्र:18 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:15» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब वाणी के विषय को इस अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) दुष्ट पुरुषों के बाँधनेवाले (मित्र) मित्र ! जैसे (बुबुधानाः) विशेष करके जानते हुए (विश्वे) सम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् जन (विश्वासु) सब (दुर्य्यासु) स्थानों घरों में (द्युभक्तम्) बिजुली आदि पदार्थों से सेवित (रत्नम्) धन को (धारयन्त) धारण करते हैं और (आत्) अनन्तर (इत्) ही (पश्चा) पीछे से इसका (वि, अख्यन्) विशेष करके उपदेश दें (आत्) अनन्तर (इत्) ही वह (सत्यम्) सत्य (धिये) बुद्धि वा उत्तम कर्म के लिये (अस्तु) हो ॥१८॥
भावार्थभाषाः - जो लोग ब्रह्मचर्य्य से विद्या, उत्तम शिक्षा, सत्य और धर्माचरणों को धारण करके अन्य जनों के प्रति उपदेश देते हैं, वे बुद्धि को बढ़ा के सर्वत्र प्रसिद्ध हो के आनन्द से घरों में रहते हैं ॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वाणीविषयमाह ॥

अन्वय:

हे वरुण मित्र ! यथा बुबुधाना विश्वे देवा विश्वासु दुर्य्यासु द्युभक्तं रत्नं धारयन्ताऽऽदित् पश्चैतद् व्यख्यन्नाऽऽदित्तत्सत्यं धियेऽस्तु ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आत्) आनन्तर्ये (इत्) एव (पश्चा) पश्चात् (बुबुधानाः) विजानन्तः (वि) विशेषेण (अख्यन्) उपदिशन्तु (आत्) (इत्) (रत्नम्) धनम् (धारयन्त) धारयन्ति (द्युभक्तम्) विद्युदादिभिस्सेवितम् (विश्वे) सर्वे (विश्वासु) (दुर्यासु) गृहेषु (देवाः) (मित्र) सखे (धिये) प्रज्ञायै कर्मणे वा (वरुण) दुष्टानां बन्धक (सत्यम्) त्रैकाल्याऽबाध्यम् (अस्तु) भवतु ॥१८॥
भावार्थभाषाः - ये ब्रह्मचर्य्येण विद्यासुशिक्षासत्यधर्माचरणान् धृत्वाऽन्यान् प्रत्युपदिशन्ति ते प्रज्ञां वर्धयित्वा सर्वत्र प्रसिद्धा भूत्वाऽऽनन्देन गृहेषु वसन्ति ॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे लोक ब्रह्मचर्याने विद्या, सुशिक्षण, सत्य व धर्माचरण धारण करतात व इतरांना उपदेश करतात ते बुद्धी वाढवून सर्वत्र प्रसिद्ध होऊन आनंदाने गृही रमतात. ॥ १८ ॥